Tuesday, February 21, 2012

टी.एस.इलियट का निर्वैयक्तिकता का सिद्धांत


परिचय:- जन्म 1888 अमेरिका, 1910 में हार्वर्ड विश्वविद्यालय से एम.. संस्कृत और पालि भाषा का अध्ययन। निबंध और टिप्पणियां पुस्तक रूप में प्रकाशित - दि सेक्रेड वुड,1920, सेलेक्टेड एसेज 1917-32, दि यूज ऑफ पोयट्री एण्ड यूज ऑफ क्रिटिसिज्म 19333 आदि।    
निर्वैयक्तिकता का सिद्धांत (क्मचमतेवदंसप्रंजपवदद्ध
          पृष्ठभूमि: इस सिद्धांत का प्रतिपादन रोमैंटिक कवियों की व्यक्तिवादिता के विरोध में हुआ।इलियट एजरा पाउण्ड के विचारों से काफी प्रभावित थे। एजरा पाउण्ड की मान्यता थी कि कवि वैज्ञानिक के समान ही निर्वैयक्तिक और वस्तुनिष्ठ होता है। कवि का कार्य आत्मनिरपेक्ष होता है।इस मत से प्रभावित होकर इलियट ने अनेकता में एकता बाँधने के लिए परंपरा को आवश्यक मानते थे, जोे वैयक्तिकता का विरोधी है। वह साहित्य के जीवन्त विकास के लिए परंपरा का योग स्वीकार करते थे, जिसके कारण साहित्य में आत्मनिष्ठ तत्त्व नियंत्रित हो जाता है और वस्तुनिष्ठ प्रमुख हो जाता है।
          निर्वैयक्तिकता: इलियट ने इसका अर्थ कवि व्यक्तिगत भावों की विशिष्टता का सामान्यीकरण बताया है। तदनुसार कवि अपनी तीव्र संवेदना और ग्रहण क्षमता से अन्य लोगों की अनुभूतियों को आयत्त कर लेता है, पर वे आयत्त अनुभूतियां उसकी निजी अनुभूतियां हो जाती हैं। जब वह अपने स्वयुक्त अथवा चिंतन द्वारा आयत्त अनुभवों को काव्य में व्यक्त करता है तो वे उसके निजी अनुभव होते हुए भी सबके अनुभव बन जाते हैं।   
          कविता के घटक- तत्त्व, विचार, अनुभूति, अनुभव, बिम्ब, प्रतीक आदि सब व्यक्ति के निजी या वैयक्तिक होते हैं। कलाकार जब अपनी तीव्र संवेदना और ग्रहण शक्ति के माध्यम से अपने अनुभवों को काव्य रूप में प्रकट करता है, तो वे व्यक्तिगत होते हुए भी सबके लिए अर्थात् सामान्य (सार्वजन्य) बन जाते हैं। कवि उनके भार से मुक्त हो जाता है या कहिए कि ये तत्त्व कवि की वैयक्तिकता से बहुत दूर चले जाते हैं या कहिए कि निर्वैयक्तिक हो जाते हैं। भाव ही नहीं कविता के माध्यम से कवि अपनी वैयक्तिक सीमाओं से भी मुक्त हो जाता है, उसका स्वर एक व्यक्ति का स्वर रहकर विश्वमानव का सर्वजनीन स्वर बन जाता है। उदाहरण के लिए कई तत्त्वों से चटनी बनती है पर चटनी तैयार होने पर सभी तत्त्व अपने स्वाद से मुक्त हो जाते हैं।
          इलियट कि यह निश्चित मान्यता है कि कला में अभिव्यक्त भाव निर्वैक्तिक होते हैं ओर कवि अपने को प्रकृति के प्रति समर्पित किए बिना निर्वैयक्तिक हो ही नहीं सकता। कविता मनोभावों की स्वच्छंदता नहीं है वरन् उससे पलायन है। वह व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति नहीं अपितु व्यक्तित्व से पलायन है। किंतु निश्चय ही जिनमें व्यक्तित्व और भाव हैं, वे ही यह जान सकते हैं कि उनमें मुक्ति की आकांक्षा का अर्थ क्या होता है। कवि व्यक्तिगत की अभिव्यक्ति नहीं करता, वरन् वह विशिष्ट माध्यम मात्र है।
          उनके प्रारंभिक वक्तव्यों से स्पष्ट है कि कविता उत्पन्न हो जाती है, उत्पन्न की नहीं जाती। इलियट ने कविता की उत्पत्ति को लेकर बाद में अपने मत में संशोधन करते हुए कहा कि - मैं उस समय अपनी बात ठीक से व्यक्त नहीं कर सका था। बाद में निर्वैयक्तिकता के संबंध में यह वक्तव्य दिया कि- निर्वैयक्तिकता के दो रूप होते हैं- एक वह जो कुशल शिल्पी मात्र के लिए प्राकृतिक होती है और दूसरी वह जो प्रौढ़ कलाकार के द्वारा अधिकाधिक उपलब्ध हो जाती है। दूसरे प्रकार की निर्वैक्तिकता उस प्रौढ़ कवि की होती है जो अपने उत्कट और व्यक्तिगत अनुभवों के माध्यम से सामान्य सत्य को व्यक्त करने में समर्थ होता है।
          उसने कवि के मन की तुलना प्लेटिनम के तार से की। जैसे ऑक्सीजन और सल्फरडाईआक्साइड प्लेटिनम के संपर्क में आकर सल्फ्यूरिस एसिड बन जाता है किंतु इस सल्फ्यूरिस एसिड में प्लेटिनम का कोई भी चिह्न दिखाई नहीं देता। प्लेटिनम का तार भी पूर्णतः अप्रभावित रहता है। इसी प्रकार कवि के मन के संपर्क में अनेक प्रकार के संवेदन, अनुभूतियां और भाव आते हैं और नए-नए रूप ग्रहण करते रहते हैं किंतु प्रौढ़ कवि का मन अप्रभावित रहता है। वस्तुतः रचनाकार जितना प्रौढ़ और परिपक्व होगा, उसमें भोक्ता और स्रष्टा व्यक्तित्व का अंतर उतना ही स्पष्ट होगा।
          पाश्चात्य जगत उक्त धारणाओं से अचंभित होकर इन्हें हास्यापद एवं स्वतो व्याघात दोष से युक्त भी घोषित किया। पश्चिमी साहित्य चिंतन स्तर के अनुसार ऐसा होना स्वाभाविक भी था क्योंकि इस सिद्धांत को वही व्यक्ति गहराई से समझ सकता है जिसने भारतीय आचार्य भट्टनायक के साधारणीकरण एवं अभिनवगुप्त के अभिव्यक्तिवाद का अनुशीलन किया है। रस सिद्धांत के अंतर्गत जो बात साधारणीकरण की प्रक्रिया के अंतर्गत कही गई है वही बात निर्वैक्तिकता के सिद्धांत के अंतर्गत कही गई है। साधारणीकरण की अवधारणा के अनुसार कवि के भाव एक व्यक्ति के भाव नहीं रहते अपितु वे सर्वसाधारण या जनमानस के भावों में परिणत हो जाते हैं, इसीलिए कविता को प्रेम या विरह, सुख या दुख, हर्ष या विषाद, हास्य या रुदन सर्वसाधारण के सुख-दुख एवं हास्य-रुदन में परिणत हो जाता है। यदि हम इलियट की शब्दावली में कहें तो कवि के भाव निर्वैयक्तिक हो जाते हैं।
          साधारणीकरण या निर्वैयक्तिकता की खोज भारतीय आचार्यों ने 8-9वीं शदी में कर ली थी, उसी की खोज पाश्चात्य में इलियट के द्वारा 20वीं शदी में हुई।

16 comments:

  1. सुंदर ब्लॉग। आभार

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  2. आन्नद आ गया

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    1. इलिएट के सिध्दान्त की बहुत ही स्पष्ट व सुन्दर ढ़ंग से व्याख्या की गयी है ।

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  3. बहुत ही अच्छा लिखा है। कम शब्दों में पूर्ण प्रस्तुति।

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  4. इतना तो जान हमनें

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  5. इतना तो जान हमनें

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  6. Bahot hi achha hai easily samjh a gya. Thanks

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  7. bhut acha lga bhai is prkar paschaty kya sastr ke sare sidhant krva do please very help ful

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  8. Thank you bahut easy tha jaldi samj aa gya

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