Tuesday, February 21, 2012

लौंजाइनस का औदात्य सिद्धांत ( काव्य में उदात्त तत्त्व)


 
लौंजाइन एक परिचय- .पू. तीसरी शताब्दी के यूनानी विचारक, कुछ लोग ईसा की पहली शताब्दी में रोम का रहने वाला काव्यशास्त्री मानते हैं। इनके ग्रंथ पेरिहुप्सुस की खोज 16वी शताब्दी में हो सकी और इसका प्रथम संस्करण 1554 में प्रकाशित हुआ। इस ग्रंथ का अंग्र्र्रेजी अनुवाद दि सब्लाइमकिया गया इन्होंने औदात्य की प्रेरणा कैसिलियस के निबंध उदात्तसे ली।

औदात्य सिद्धांत:- लौंजाइनस की औदात्य संबंधी अवधारणा बड़ी व्यापक है तथा साहित्येतर इतिहास, दर्शन और धर्म जैसे विषयों को भी समाविष्ट कर लेती है। लौंजाइनस ने उदात्त तत्त्व से परिपूर्ण रचना को ही श्रेष्ठ माना है। उसके विचारों को निम्नांकित बिंदुओं के माध्यम से स्पष्ट किया जा सकता हैः-

          उसने अपने पूर्ववर्ती विद्वानों के इन मतों का खंडन किया कि काव्य का उद्देश्य पाठक को मात्र आनंद प्रदान करना, शिक्षा देना और अपनी बात मनवाना है उसने यह माना कि काव्य का लक्ष्य पाठक को चरम उल्लास प्रदान करना है। उसको तर्क द्वारा बाध्य करना नहीं, अपितु पाठक या श्रोता को स्वसे ऊपर उठाना हैै। उसे ऐसी उच्च भावभूमि पर पहुँचा देना है जहाँ निरी बौद्धिकता पंगु हो जाय और वर्ण्य विषय विद्युत प्रकाश की भांति आलोकित हो जाय।
          कल्पना के बारे में उसने स्वीकार किया कि काव्य का संबंध तर्क से होकर कल्पना से है। साहित्यकार अपनी तर्क शक्ति द्वारा नहीं अपनी कल्पना के द्वारा पाठक को आकर्षित करता है।
          उसके मतानुसार जिस साहित्यकार का अध्ययन जितना गहन और विशद होगा, उसका साहित्य सौंदर्य से उतना ही आपूरित होगा।
          उसने उदात्त सिद्धांत को तीन वर्गों में विभाजित किया-
          अंतरंग Ÿ -
             विषय की गरिमा
             भावावेश या आवेग की तीब्रता (भव्य आवेग तथा निम्न आवेग - भव्य आवेग से उत्कर्ष तथा निम्न आवेग से अपकर्ष )
          बहिरंग Ÿ -
             समुचित अलंकार योजना ( विस्तारणा, शपथोक्ति, प्रश्नालंकार, विपर्यय, व्यतिवम, पुनरावृत्ति और छिन्नवाक्य, प्रत्यक्षीकरण, संचयन सार, रूप परिवर्तन, पर्यायोक्ति)
             उत्कृष्ट भाषा (भव्य शब्दावली एवं पद रचना)
             गरिमामयी उदात्त संरचना (वाक्य विन्यास या रचना विधान)- उदात्त शैली के सभी तत्त्व एकान्वित कर एक व्यवस्थित क्रम में हो तथा उनमें सामंजस्य हो।
          विरोधी Ÿ -
             बालेयता या तुच्छता
             असंयत वाग्विस्तार
             क्षुद्रार्थद्योतक शब्द रचना
             भाव एवं शब्दों का घोर अनावश्यक आडंबर
             अभिव्यक्ति की आवश्यक संक्षिप्तता
             क्षुद्रता
          विषय में ज्वालामुखी के समान असाधारण शक्ति और वेग तो होना ही चाहिए साथ में ईश्वर का सा ऐश्वर्य और वैभव होना चाहिए। वह ऐसा होना चाहिए जिससे प्रभावित होना असंभव हो जाय।
          उपयुक्त शब्द चयन, प्रभावशाली एवं उदाŸ भाषा को प्रमुखता।
          मिथ्या चमत्कार हेतु अलंकार प्रयोग को वर्जित माना।
          बालेयता, असंगत वाग् विस्तार, क्षुद्रार्थ द्योतक शब्द रचना , भाव एवं शब्दों का घोर अनावश्यक आडंबर, अभिव्यक्ति की अनावश्यक संक्षिप्तता एवं क्षुद्रता आदि को विरोधी तत्त्व माना है।
          विरोधी Ÿवों के प्रयोग से काव्य में निकृष्टता जाती है।
          गरिमामयी भाषा प्रत्येक अवसर के अनुकूल नहीं क्योंकि छोटी-छोटी बातों को भारी भरकम संज्ञा देना, किसी छोटे बच्चे को पूरे आकार वाला मुखौटा लगा देने के समान हैै।
          महान प्रतिभाशाली,उच्च विद्वान एवं चरित्रवान व्यक्ति ही उदात्त रचनाएं दे सकता है जैसे - होमर।
          लौंजाइनस में स्वच्छंदतावाद और अभिव्यंजनावाद दोनों के तत्त्व विद्यमान हैं।
          जिस प्रकार शरीर के सभी अवयवों का अलग-अलग रहने पर कोई महत्त्व नहीं सब मिलकर ही एक समग्र और संपूर्ण शरीर की रचना करते हैं उसी प्रकार उदात्त शैली के सभी तत्त्व जब एकाचित कर दिए जाते हैं तभी उनके कारण कृति गरिमामयी बनती है।
          यदि एक प्रतिभाशाली व्यक्ति चारित्रिक दृष्टि से हल्का एवं छिछोरा है, उसकी वासनाएं अपरिष्कृत एवं प्रवृŸिायां क्षुद्र हैं तो ऐसी अवस्था में उससे औदात्य की आशा नहीं की जा सकती।
          भावावेग के उद्वेलन एवं उससे उत्पन्न आनंद की बात को स्वीकार करते हुए लौंजाइनस ने भारतीय काव्यशास्त्र के रस सिद्धांत की धारणाओं को ही पुष्ट किया है।
          विरोधी तत्त्वों को भारतीय काव्यशास्त्र में काव्य दोष माना गया है जो रस सृष्टि में बाधक होते हैं।
          भारतीय काव्यशास्त्र में कुंतक का वक्रोक्ति सिद्धांत उदात्त के बहुत समीप है।

1 comment: