Tuesday, February 21, 2012



 
          इलियट के अनुसार भाव-संप्रेषण के लिए वस्तुनिष्ठ समीकरण आवश्यक है। इस संबंध में उसका कथन है- ‘‘कला में भाव प्रदर्शन का एक ही मार्ग है, और वह यह है कि उसके लिए वस्तुनिष्ठ समीकरण (वइरमबजपअम बवततमसंजपअम) को प्रस्तुत किया जाय। दूसरे शब्दों में, ऐसी वस्तु-संघटना, स्थिति, घटना-शृंखला प्रस्तुत की जाय जो उस नाटकीय भाव का सूत्र हो, ताकि ये वाह्य वस्तुएं जिनका पर्यवसान मूर्त मानस अनुभव में हो, जब प्रस्तुत की जायें तो तुरंत भावोद्रेक हो जाय। ’’
          नाटककार जो कुछ कहना चाहता है, उसे वह वस्तुओं की किसी संघटना, किसी स्थिति, किसी घटना-शृंखला के द्वारा ही कहता है। अतः वह अपनी संवेदनाओं और अनुभूतियों की अभिव्यक्ति के लिए मूर्त विधान से काम लेता है। फलस्वरूप अमूर्त विधान हो जाता है। इन मूर्त चिह्नों तथा प्रतीकों से ठीक वही भावनाएं जागृत हेाती हैं जो कवि के मन में जागृत रहती हैं।  चाहें तो हम इलियट के इस वस्तुनिष्ठ समीकरण को विभाव-विधान भी कह सकते हैं। यह विभाव-विधान ऐसा होना चाहिए कि सामाजिकों में नाटककार के मानस-भाव जाग्रत हो सकें।
          इलियट के वस्तुनिष्ठ समीकरण के सिद्धांत और एजरा पाउण्ड के कथन को लक्ष्य करके डॉ. रामरतन भटनागर ने इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार किया है, ‘‘ वह काव्य को संवेदना का प्रकाशन मात्र मानकर उसे साक्षात्कार की प्रतीकवद्ध अभिव्यंजना मानते हैं। इस प्रतीकवादको ही इलियट ने प्रतिरूपवादनाम दिया है, क्योंकि वह प्रतीक पर रुकना नहीं चाहता।

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