Tuesday, February 21, 2012

क्रोचे का अभिव्यंजनावाद


परिचय:
          बेनेदेते क्रोचे (1866-1952) इटली के प्रसिद्ध दार्शनिक।
          आत्मवादी दर्शन के आधार पर सौंदर्यशास्त्र की व्याख्या।
          1900 मंे एक संगोष्ठी में पढ़े गए एक निबंध में अभिव्यंजनावाद की मूलभूत
अवधारणाओं को व्यक्त किया।
          उनका सौंदर्य-सिद्धांत अभिव्यंजनावादके नाम से प्रसिद्ध
          1902 में ईस्थेटिक (सौंदर्यशास्त्र) ग्रंथ प्रकाशित।

अभिव्यंजनावाद:
          अभिव्यंजनावाद एक कला सिद्धांत है, जिसका संबंध सौंदर्यशास्त्र से है कि
साहित्यिक आलोचना से। क्रोचे की मान्यता है कि कलाकार अपनी कलाकृति में
अपने अंतर की अभिव्यक्ति करता है। यह अभिव्यक्ति बिंबात्मक होती है, जिसका
स्वरूप उसके हृदय में विद्यमान होता है, वाह्य जगत से उसक कोई संबंध नहीं।
वाह्य जगत केवल बिंब निर्माण में सहायक हो सकता है।
          कला में परंपरावादिता का विरोध कर व्यक्तिवाद पर विशेष बल दिया जिसके
फलस्वरूप आगे चलकर कला कला के लिएसिद्धांत की स्थापना हुई।
उसने कहा कि कला का कोई उद्देश्य नहीं। कला, कला के लिए ही होती है।
          कला रचना की दृष्टि से अंतःप्रज्ञात्मक ज्ञान का महत्त्व सर्वाेपरि।
          तर्कात्मक ज्ञान का कला रचना की दृष्टि से कोई महŸ नहीं।
          अंतःप्रज्ञा का ज्ञान मनःशक्ति द्वारा उपलब्ध कराया जाता है, जबकि विचारात्मक
ज्ञान बुद्धि का विषय है।
          सहजानुभूति को किसी का सहारा नहीं चाहिए। ‘‘उसके लिए यह आवश्यक
नहीं कि वह दूसरे की आंखें उधार ले, कारण उसकी आंखें स्वयं काफी तेज हैैं।’’
          अंतःप्रज्ञात्मक ज्ञान अभिव्यंजनात्मक ही होता है। उनके मत से  प्रभाव नहीं वरन् प्रभाव की रूप रचना कला है।
          प्रत्येक अंतःप्रज्ञा (सहजानुभूति) कला है और प्रत्येक कला अंतःप्रज्ञा।
          कला किसी महत् उद्देश्य का साधन नहीं है, वह स्वयं साध्य है। उसे लेकर नैतिक अनैतिक का प्रश्न भी नहीं उठाना चाहिए।
          क्रोचे ने अपने ग्रंथ सौंदर्यशास्त्र का सिद्धांत में Ÿ (मैटर या विषयवस्तु) और रूप (फॉर्म) दोनों पर ही विचार किया है। उन्होंने यह स्थापना की है कि सौंदर्यसत्ता के क्षेत्र में रूप ही महत्त्व का है, तत्त्व नहीं।
          वस्तु और रूप घुलमिलकर एक हो जाते हैं तब कला का जन्म होता है।
          अलंकृत और अनलंकृत का भेद स्वीकार नहीं।
          भारतीय दृष्टिकोण से कहें, तो सहजज्ञान सगुण साकार से संबद्ध है और बौद्धिक ज्ञान निराकार से। सहजज्ञान उतना ही होता है जितना प्रकट या अभिव्यंजित है- उससे कम और उससे ज्यादा। सहजज्ञान मन पर पड़े प्रभाव के कल्पनाजनित बिंबों के रूप में अभिव्यक्त होता है। यही अभिव्यंजना ही कला है। अतः कला सहजानुभूति है। इस प्रकार अभिव्यंजना सिद्धांत, कलावाद, बिंबवाद, प्रभाववाद आदि का प्रेरक है।
          क्रोचे श्रेष्ठ काव्य उसे मानता है जो मानव के विचार, भाव, कार्य को भावना कारूप् प्रदान कर पाठकोें को पूर्ण तन्मय कर देता है। भारतीय रस-सिद्धांत भी यही है। क्रोचे और रसवादी चिंतक इसे विशुद्ध काव्यानुभूति मानते हैं। इस प्रकार क्रोचे कला को मानव जीवन से जोड़ देता है।
          क्रोचे का अभिव्यंजना सिद्धांत साहित्य या कला-समीक्षा की कसौटी प्रस्तुत नहीं करता, वरन् यह कला की उत्पत्ति या सृजन-प्रक्रिया का विश्लेषण प्रस्तुत करता है।
          कुछ लोगों ने भारतीय काव्यशास्त्र में प्रतिष्ठित कुन्तक के वक्रोक्तिवाद से इसकी तुलना भी की है, पर दोनों नितान्त भिन्न भूमियों पर अवस्थित हैं। कुन्तक जहाँ रचित कविता के मूल्यांकन की कसौटी प्रस्तुत करते हैं और वक्रोक्ति के विविध रूपों की चर्चा करते हैं, वहाँ क्रोचे कला-सृजन की प्रक्रिया का मौलिक विश्लेषण करते हैं। काव्य या रचना किस कोटि की है, इससे क्रोचे के सिद्धांत को कोई विशेष संबंध नहीं। काव्य या कला रचना कैसे होती है और उसका स्वरूप क्या है? इसका उत्तर ही उसका प्रमुख प्रतिपाद्य है।

4 comments: